किसान आंदोलन की जन्मभूमि में हरियाणा-पंजाब जैसा आक्रोश नहीं, लोग कहते हैं- अब यहां किसानों की नहीं, धर्म और सांप्रदायिकता की राजनीति होती है'
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ओर बढ़ते हुए जैसे-जैसे शहरी क्षेत्र खत्म होता है, धान और गन्ने के लहलहाते खेत नजर आने लगते हैं। जितना मुजफ्फरनगर की ओर बढ़ेंगे, गन्ने के खेत उतने ज्यादा होते जाते हैं और धान के कम। आंखों में हरियाली समाती जाती है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश का ये क्षेत्र भारत के सबसे उर्वर इलाकों में शामिल हैं। ये भारत में किसान आंदोलन की जन्मभूमि और चौधरी चरण सिंह और महेंद्र सिंह टिकैत जैसे किसान नेताओं की कर्मभूमि भी रहा है। मुजफ्फरनगर के पास एक गांव में कुछ किसान खाट पर बैठे बतिया रहे हैं। वो भारतीय किसान यूनियन से जुड़े हैं और यूपी में 25 सितंबर को प्रस्तावित किसानों के चक्काजाम की योजना पर काम कर रहे हैं।
इसी समूह में शामिल मनोज सिंह गन्ने के लहलहाते खेत की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, ‘हम इसी गन्ने पर निर्भर हैं, लेकिन अब तो गन्ने से भी पेट नहीं पल रहा। गन्ने की पत्तियों को हम गाय-भैसों को चारे में खिलाते हैं। किसान का परिवार अब दूध से चल रहा है। गाय-भैंस न हों तो हम भूखों मर जाएं।’
यदि किसान संगठनों को छोड़ दें तो यहां आम किसानों में हाल में पारित ‘किसान हितैषी’ विधेयकों को लेकर कोई खास रोष नजर नहीं आता, हालांकि वो इन्हें किसान विरोधी जरूर मानते हैं। यहां से पश्चिम में करीब 70 किलोमीटर दूर यमुना नदी पार करके हरियाणा है और उसके आगे पंजाब, वहां किसान इन विधेयकों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं।
केंद्र सरकार तीन विधेयक लाई हैं। द फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फेसिलिटेशन) बिल 2020; द फार्मर्स (एंपावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑफ प्राइज एश्योरेंस एंड फार्म सर्विसेस बिल 2020 और द एसेंशियल कमोडिटीज (अमेंडमेंट) बिल 2020।
किसानों का मानना है कि इन विधेयकों से फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी नहीं रहेगा, मंडियां बर्बाद हो जाएंगी और कृषि क्षेत्र बड़ी कार्पोरेट कंपनियों के हाथ में चला जाएगा। यही वजह है कि पंजाब और हरियाणा में आक्रोशित किसान सड़कों पर हैं और सरकारों की सांस अटकी है, लेकिन ये आक्रोश पश्चिमी यूपी में नजर नहीं आ रहा।
इसकी वजह बताते हुए राष्ट्रीय लोक दल से जुड़े सुधीर भारतीय कहते हैं, ‘पंजाब और हरियाणा के किसानों की मुख्य आर्थिक फसल धान और गेहूं है। वो इसे एमएसपी पर मंडियों में बेचते हैं। पश्चिमी यूपी में मुख्य फसल गन्ना है। किसान गन्ना चीनी मिल को बेचते हैं और अभी इस एक्ट का चीनी मिल पर कोई असर दिखाई नहीं दे रहा है। यहां के किसानों को लग रहा है इन विधेयकों का असर उन पर उतना नहीं होगा जितना पंजाब-हरियाणा में हो रहा है।’
भारतीय किसान यूनियन से जुड़े धर्मेंद्र कहते हैं, ‘पश्चिमी यूपी के अलीगढ़, बुलंदशहर और शामली के आधे हिस्से और गौतमबुद्धनगर के कुछ हिस्से को छोड़कर बाकी जिलों में मंडी का बहुत असर नहीं है, क्योंकि इन क्षेत्रों में अधिकतर किसान गन्ना उगाते हैं। यही वजह है कि यहां किसान सड़क पर नहीं उतरा था, लेकिन अब बाकी देश के किसानों के साथ यहां भी सड़क पर उतरने की तैयारी है। 25 तारीख को हम चक्का जाम कर रहे हैं।’
धर्मेंद्र यह भी कहते हैं, ‘पंजाब हरियाणा में लगी आंदोलन की आग की आंच अब यहां भी पहुंच रही है और इस क्षेत्र के किसानों में भी अब डर पैदा हो रहा है। यहां के किसानों को डर है कि जब गेहूं-धान की एमएसपी खतरे में है तो गन्ने से भी हट सकती है। प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि एमएसपी रहेगी लेकिन हमारा सवाल है कि जब मंडी ही नहीं रहेगी तो एमएसपी कैसे रहेगी? कानून बनाकर एमएसपी की गारंटी दी जाए। एमएसपी की कानूनन गारंटी मिलेगी तो किसानों का आक्रोश भी कम हो जाएगा।’
भारतीय किसान यूनियन से जुड़े युवा किसान सौरभ कहते हैं, "गन्ने के क्षेत्र में प्राइवेट प्लेयर को ही ले लीजिए। शुगर मिल तो एमएसपी पर लेती है लेकिन क्रशर या कोल्हू में एमएसपी पर गन्ना नहीं बिकता। अभी किसान को ईख काटकर गेहूं बोना होगा तो वो खेत खाली करने के लिए मजबूरी में मिल के बाहर सस्ते में गन्ना बेचेगा। बीते साल गन्ने का एमएसपी 325 रुपए प्रति क्विंटल थी लेकिन किसान को क्रशर पर गन्ना 180 रुपए क्विंटल तक बेचना पड़ा।"
किसान सुधीर कुमार इन विधेयकों को किसानों के शोषण की गारंटी कहते हैं। सुधीर कहते हैं, 'किसानों ने लॉकडाउन में देश की अर्थव्यवस्था को बनाए रखा। लेकिन सरकार जब किसानों से जुड़े कानून लाई तो किसी से चर्चा तक नहीं की गई। इन विधेयकों को रोकने के लिए आत्महत्या भी करनी पड़ेगी तो किसान करेगा।'
सरकार ने ये विधेयक संसद में पारित कराने से पहले इन्हें आर्डिनेंस यानी अध्यादेश के जरिए मान्यता दी थी। इस जल्दबाजी पर सवाल उठाते हुए युवा किसान नेता नितिन राठी कहते हैं, ‘सरकार पहले अध्यादेश लेकर आई। फिर संसद में ये विधेयक बिना सांसदों की वोटिंग के पारित कर दिए गए। यहीं से पता चलता है कि दाल में कुछ तो काला है। ऐसी क्या जल्दी थी कि ये तीन विधेयक पीछे के दरवाजे से पास कर दिए गए। किसी किसान नेता या किसान की राय तक नहीं ली गई। इन विधेयकों में ऐसा क्या है कि महामारी के वक्त ये गुपचुप तरीके से पारित किए गए?’
इन विधेयकों में एक विषय कांट्रेक्ट फार्मिंग भी है। यानी ठेके पर खेती। इस कांसेप्ट पर सवाल उठाते हुए नितिन कहते हैं, ‘कांट्रेक्ट फार्मिंग के कानून में कंपनी को ये अधिकार दिया गया है कि विवाद होने की स्थिति में मामला अदालत नहीं जाएगा, बल्कि जिलाधिकारी के पास जाएगा। प्रशासन सत्ता के दबाव में काम करता है और सत्ता पूंजीपति के, ऐसे हालात में किसान की बात कौन सुनेगा? यदि भविष्य में किसान या किसानों के समूह और कंपनी के बीच विवाद होता है तो उसमें किसानों के हित की गारंटी कौन देगा? कंपनी तो अपने आप को दीवालिया कहकर किसानों का पैसा हड़प कर चली जाएगी। ऐसी स्थिति में किसान के पास आत्महत्या के अलावा क्या विकल्प होगा?’
लेकिन बड़ी कंपनियों के कृषि क्षेत्र में आने से किसानों को क्या दिक्कत है? सुधीर भारतीय कहते हैं, ‘सरकार देश के बड़े कारोबारियों के हाथ में कृषि क्षेत्र को सौंप रही है। वो इसमें जितना पैसा लगाएंगे उससे ज्यादा निकालेंगे। कार्पोरेट इसी मॉडल पर चलता है।’
इसी सवाल पर धर्मेंद्र कहते हैं, ‘कार्पोरेट के कुछ लोग फुड ग्रेन सिस्टम पर कब्जा करना चाहता हैं। ये उसी की पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है। किसानों को कंपनियों का गुलाम बनाया जाएगा। जमीन हमारी होगी लेकिन खेती कंपनियों के इशारों पर होगी।’
द एसेंशियल कमोडिटीज (अमेंडमेंट) बिल के तहत भंडारण की सीमा समाप्त कर दी गई है। इस पर सवाल उठाते हुए सौरभ कहते हैं, ‘सरकार ने भंडारण कानून में किसान और कंपनी दोनों को भंडारण की छूट दी है। हमारे देश में 85 प्रतिशत किसान गरीब हैं। वो भंडारण कैसे करेंगे? ना उनके पास फसल के भंडारण की सुविधा है ना ही उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी है कि वो फसल का भंडारण भी कर लें और अपना घर भी चला लें। सरकार मुनाफाखोरी और जमाखोरी के लिए रास्ता खोल रही है। किसान के हाथ से गुड़ लेकर उसे जहर पिलाया जा रहा है।’
मुजफ्फरनगर के इन इलाकों में शाम के वक्त गन्ने के खेतों को निहारते किसान और कच्चे-पक्के रास्तों पर दौड़ते जवान नजर आते हैं। यहां किसानों के बेटे सेना या पुलिस में जाने की तैयारी करते हैं।
किसान मनोज सिंह कहते हैं, ‘हम खेतों में अपनी ड्यूटी करते हैं और हमारे बच्चे फौज में। ये जो सरकार ने किसानों के हक पर डाका डालने की कोशिश की है ये सरकार को बहुत महंगी पड़ सकती है। फौज में भी तो किसान के ही बेटे हैं। यदि उन्होंने हथियार डाल दिए तो क्या होगा। कौन इस देश को बर्बाद होने से रोक पाएगा? जिस जवान के बाप, भाई, ताऊ चचा यहां आत्महत्या कर लेंगे क्या उसमें सेना के लिए हथियार चलाने का आत्मबल रह पाएगा?’
किसानों के बच्चे भी अब खेत से दूर हो रहे हैं। संजय राठी कहते हैं, ’जब खेती में आमदनी ही नहीं बचेगी तो कोई मेहनत क्यों करेगा? खेती की आमदनी कम होगी तो किसान के बेटा खेत में जाने के बजाए अपराध की ओर जाएगा।’
इन विधेयकों को लेकर यहां सुगबुगाहट तो है लेकिन कोई बड़ा प्रदर्शन अभी यहां नहीं हुआ है। 21 सितंबर को राजनीतिक दलों ने जरूर विरोध किया था लेकिन वो भी सीमित ही था, अब चक्काजाम की तैयारी चल रही है।
सुधीर भारतीय कहते हैं, ‘यहां के किसान ये तो समझ रहे हैं कि उनके साथ कुछ न कुछ तो साथ गलत हुआ है लेकिन अभी वो सड़क पर नहीं उतरे हैं, किसान इंतजार कर रहे हैं कि नेता सड़क पर आएं और नेता किसानों के सड़क पर आने के इंतजार में हैं। किसानों को लग रहा है कि नेताओं को इससे फर्क नहीं पड़ रहा है वर्ना वो सड़क पर आ गए होते जबकि नेता सोच रहे हैं कि किसानों को फर्क नहीं पड़ रहा है नहीं तो वो सड़क पर आ गए होते।’
मुजफ्फरनगर कभी भारत की किसान राजनीति का केंद्र रहा है। साल 1987 में किसान महेंद्र सिंह टिकैत ने कर्नूखेड़ी गांव का बिजली घर जलने के विरोध में बिजली घर का घेराव किया था। एक गांव का बिजली घर जलने के इस मुद्दे पर तब लाखों किसान एकजुट हो गए थे और सरकार को किसानों के लिए बिजली की दर तक कम करनी पड़ी थी।
उसी साल अक्तूबर में महेंद्र सिंह टिकैत के गांव सिसौली में किसानों की महापंचायत हुई थी और अगले साल जनवरी में मेरठ में किसानों का 25 दिन का आंदोलन हुआ था जिसने देश की राजनीति को हिला दिया था. यहीं से महेंद्र सिंह टिकैत बड़े किसान नेता के रूप में उभरे और भारतीय किसान यूनियन का जन्म हुआ।
लेकिन अब यहां किसान राजनीति कमज़ोर हो गई है। सुधीर भारतीय कहते हैं, ‘यहां 2013 में एक बड़ा दंगा हुआ और मुजफ्फरनगर हिंदू-मुसलमानों के बीच बंट गया। किसान और उनके मुद्दे पीछे छूट गए। अब यहां किसानों की नहीं, धर्म और सांप्रदायिकता की राजनीति होती है। किसानों के दिमाग में भी फसल के दाम या गाव के विकास के बजाए धार्मिक मुद्दे हावी हो गए। अब लोग धर्म की इस राजनीति के चक्र से बाहर आ तो रहे हैं लेकिन किसान राजनीति की ओर जाने में कितना वक्त और लगेगा ये कहा नहीं जा सकता।’
राजनीतिक तौर पर मुजफ्फरनगर अब बीजेपी के हाथ में है। सुधीर कहते हैं, "यहां पूरा का पूरा तंत्र भाजपा का है। भाजपा अपने काडर के जरिए लोगों को ये समझा रही है कि ये विधेयक किसान हितैषी हैं। वो मोटी-मोटी एक बात यही कहते हैं कि अब किसान अपनी फसल जहां चाहेगा वहां बेचेगा। लेकिन जिस देश में 86 फीसदी किसान एक एकड़ से तीन एकड़ जमीन बोते हों, वो एक जिले से दूसरे जिले नहीं जा सकते, एक राज्य से दूसरे राज्य कैसे जाएंगे? सच ये है कि किसान की फसल बेचने पर पाबंदी कभी भी नहीं थी। किसान अपनी जोत बही लेकर दूसरे राज्य में जाकर फसल बेच सकता है। इसमें कोई नई बात नहीं है।"
हरियाणा और पंजाब से उठी विरोधी की चिंगारी अब यहां पहुंच रही है। लोग इन विधेयकों पर चर्चा कर रहे हैं और किसान संगठन आंदोलन खड़ा करने में जुटे हैं। अब तक शांत इस इलाके में भी अगर बड़े प्रदर्शन हों तो कोई हैरत की बात नहीं होगी। क्योंकि बाहर से समृद्ध नजर आने वाले ये हरा-भरा इलाका भी कृषि संकट की गिरफ्त में आता नजर आता है।
हाल के महीनों में मुजफ्फरनगर और आसपास के जिलों में भी किसानों की आत्महत्या के मामले सामने आए हैं। किसान संगठनों से जुड़े लोग इसे खतरनाक संकेत मानते हैं। नितिन राठी कहते हैं, "हमारे सामने अब करो या मरो के हालात हैं। हम इधर भी मर रहे हैं, उधर भी मर रहे हैं। जब मर ही रहे हैं तो क्यों न लड़कर ही मरा जाए।
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